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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते


'ऊटी पचहत्तर मील'-सामने मील के पत्थर पर ख़ुदे अक्षरों को मैं कई क्षण देखता रहा। कालीकट से चुन्देल आकर मैं वहाँ से उतरा ही था। सामान कालीकट छोड़ आया था। चलते समय मुझे पता नहीं था कि मैं ऊटी की सड़क पर जा रहा हूँ। अब चुन्देल पहुँचकर उस मिल के पत्थर को देखते हुए मन होने लगा कि अगली बस से ऊटी चला जाऊँ-कुल पचहत्तर मील का ही तो सफ़र है। पर रात काटनी पड़ती आठ हज़ार फ़ुट की ऊँचाई पर और गले में थी सिर्फ़ एक सूती कमीज़। मैंने आँखें मील के पत्थर से हटायीं और कच्चे रास्ते पर आगे चल दिया।

उससे पहली शाम मैंने कालीकट के समुद्र-तट पर बितायी थी। जिस समय वहाँ पहुँचा, उस समय जितने भी लोग वहाँ थे, सबके सब एक-दूसरे से दूर अलग-अलग दिशाओं में मुँह किये लेट या बैठे थे। लगता था हर-एक को दुनिया से किसी-न-किसी बात की नाराज़गी है-या अपने अस्तित्व को लेकर कुछ ऐसी चिन्ता है जिसका समाधान उसे यहाँ से ढूँढ़कर जाना है। हर आदमी ने अपना एक अलग कोण बना रखा था। एक जगह तीन आदमी कुहनियों पर सिर रखे आगे-पीछे लेटे थे-एक-दूसरे से दो-दो फ़ुट का फ़ासला छोड़कर। उन्होंने शायद अपनी व्यक्ति-भावना और समष्टि-भावना का समन्वय कर रखा था। लेकिन कुछ देर बाद वहाँ चहल-पहल हो गयी, तो ये सारे व्यक्तिवादी, अपने कोणों सहित, उस भीड़ में खो गये।

कालीकट व्यापारिक नगर है। वहाँ का समुद्र-तट जहाजों पर माल चढ़ाने-उतारने का केन्द्र है। मुझे अपनी दृष्टि से वह समुद्र-तट ज्यादा आकर्षक नहीं लगा, इसलिए सिर्फ़ एक रात वहाँ रहकर मैंने आगे चल देने का निश्चय कर लिया। कालीकट से चुन्देल मैं चाय और कॉफ़ी के बागीचे देखने के लिए आया था। इस जगह की सिफ़ारिश मुझसे हुसैनी ने की थी।

दो पत्तियाँ और एक कली-मैं कच्चे रास्ते से एक पौधे की पत्तियाँ तोड़कर सूँघने लगा। सामने नीलगिरि का जितना विस्तार नज़र आता था, उस पर दूर तक चाय के पौधे उगे थे। कुछ दूर ऊँचाई पर चाय की फ़ैक्टरी थी। घूमता हुआ मैं फ़ैक्टरी में चला गया। चाय की हरी-हरी पत्तियों को सूँघते-सहलाते हुए जो पुलक प्राप्त हुआ था, वह फ़ैक्टरी में यह देखकर जाता रहा कि केतली तक आने से पहले वे पत्तियाँ किस बुरी तरह सुखायी, मसली, तपायी और काटी जाती हैं। मगर फ़ैक्टरी में जो ताज़ा चाय पीने को मिली, उससे यह भावुकता काफ़ी हद तक दूर हो गयी।

फ़ैक्टरी से निकलका फिर काफ़ी देर इधर-उधर घूमता रहा। हर तरफ़ चाय के ही बगीचे थे, कॉफ़ी का एक भी बगीचा नज़र नहीं आ रहा था। एक आदमी से पूछा, तो उसने सामने की तरफ़ इशारा कर दिया। जो उसने मुँह से कहा, वह मेरी समझ में नहीं आया। मैं चुपचाप उसके बताये रास्ते पर चल दिया। पर डेढ़-दो फ़र्लांग जाने पर एक दोराहा आ गया। मैं कुछ देर दुविधा में खड़ा रहा कि अब आगे रास्ते से जाऊँ। एक तरफ से कुछ लोगों के बात करने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। यह सोचकर कि आगे का रास्ता उनसे पूछ लिया जाए, मैं उस तरफ़ बढ़ गया। झाड़ियों से आगे वह एक खुली-सी जगह थी जहाँ नीचे कुछ मज़दूर खाद तैयार कर रहे थे। उनके और मेरे बीच कई गज़ तक खाद का फैलाव था। मैं खाद के ऊपर से होता हुआ उनके पास पहुँच गया। शब्दों और इशारों का पूरा इस्तेमाल करते हुए मैंने उनसे पूछा कि कॉफ़ी के बागीचे तक पहुँचने के लिए मुझे किस रास्ते से जाना चाहिए। पर वे लोग मेरी बात नहीं समझे। उनमें से एक ने आगे आते हुए मुझसे पूछा, "मलयाली?"

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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